Sunday, June 26, 2016

पंडित और यादव की कथा Pandit aur Yadav's ki Katha


यादव और यदवायिन [पति और पत्त्नी ] बहुत दिनों से कथा सुनने की इच्छा थी ।  एक दिन यादव अपनी पत्त्नी से बोले कि, अरे डब्बू की अम्मा सुनती हो ! जरा यह आओ, क्या है?  जब देखो तब गला फाड़ -फाड़ कर चिल्लाते रहते हो हमेशा अपनी ही सुनाते रहते हो, कभी मेरी भी सुने हो? इतने बरस शादी को हो गया..... हम भी जरा सुनना चाहते हैं कि कथा कैसे होती है, लेकिन नहीं, बस पूरी जिन्दगी इसी घर गृहस्थी में बीत जायेगा, कथा सुनने के नाम पर आँख, कान, मुँह, सब बन्द हो जाते हैं ।

अरे डब्बू के बाबू ऐसा ना करो की नरकौ में जगह न मिलै ( यादव के आवाज देते ही उनकी प्राण प्रिये के मुख से एक ही में सांस में इतने मधुर वाक्य निकल पड़े)।

" यादव खटिया [चारपाई ] पर बैठे -बैठे मुस्कुराते हुए " थोड़ी देर जरा हमारी भी तो सुन लीजिए !

ठीक है बोलो ? लेकिन आज हम कुछ नही जानते, हम आपसे बताय दे रहे हैं, ऊ....... जो कथा होती है, हमको सुनना है ।

इतनी देर से कथा के बारे में बात करना चाह रहे है और तुम हो की हमें बोलने का मौका ही नहीं दे रही हो ,

क्या....? आप कथा के बारे में बात कर रहे हैं ? अच्छा -अच्छा ठीक है, कब और कैसे करना है ?

मैं आज ही पंडित जी से सारी विधियाँ पूछकर आऊंगा और कल सुबह हम लोग कथा सुनेंगे [ यादव जी तो कभी कथा -वथा ना सुने थे ना ही देखे थे ] दूसरे दिन सुबह - सुबह यदवायिन बड़े जोर-शोर से तैयारियाँ कर रही थी । जहाँ कथा होनी थी वह वहाँ पर गोबर से लीप दी थी और वहाँ पर केले का पत्ता, पान, सुपाड़ी, जल, पूजा की सारी सामग्री रख दी गयी थी ।

अब पण्डित जी आये, यादव यदवायिन दोनों लोग नहा धुलकर नए वस्त्र धारण करके बैठ गए । पण्डित जी से यादव जी बोले, पण्डित जी हमने कभी कथा नहीं सुनी है और जो भूल -चूक होगी माफ़ करियेगा, और ये कथा कैसे की जाती है ?

पण्डित जी बोले, कोई बात नहीं यादव जी, आपको वही करना है जो -जो मैं कहूँगा वो -वो आप करते जाइएगा, बस कुछ ही घंटो में कथा सम्पन्न हो जायेगी ।

यादव ;ठीक है पंडित जी । [यादव और यदवायिन दोनों बड़े प्रसन्न थे ,जो उनके मन की इच्छा पूरी हो रही थी ।

यदवायिन इस समय अपने को दुनियाँ की सबसे ऊँची प्रतिष्ठित व्यक्ति महसूस कर रही थी मन मन फूली समा नहीं रही थी

अब कथा प्रारम्भ होती है। पण्डित जी मंत्र बुदबुदाए फिर बोले ,बेटा!सुपाड़ी यहाँ चढ़ा दो ,[यादव जी मन में सोच रहे थे ,पण्डित जी मुझसे बोले हैं जो मैं कहूँगा वही तुम्हे है ]

यादव पण्डित जी से ;बेटा सुपाड़ी यहाँ चढ़ा दो !

"पण्डित जी को गुस्सा तो बहुत आयी पर शान्त हो गये और खुद ही सुपाड़ी चढ़ा ली "

पण्डित जी ;पान का पत्ता यहाँ चढ़ा दो !

यादव; पान का पत्ता यहाँ चढ़ा दो !

[पण्डित जी को बड़ी तेज गुस्सा आयी और बोले ] मैं तुमसे जो -जो कह रहा हूँ वो तुम करो ,[गुस्से में लाल -लाल आँखे दिखाकर पंडित जी यादव से बोले ]

भी बोल पड़े ;मैं तुमसे जो -जो कह रहा हूँ वो करो !

[पण्डित जी का पारा बढ़ता जा रहा था ]पण्डित जी ने अपनी लाल -लाल आँख दिखाकर ,दाँत भींचकर बोले ,मैं तुमसे शराफ़त से कह रहा हूँ -पान चढ़ाओ ,सुपाड़ी चढ़ाओ ,उसपर जल छिड़को ,फूल चढ़ाओ समझे ।

यादव ने भी लाला -लाल आँखे दिखते हुए पण्डित जी के ऊपर चिल्लाते हुए वही वाक्य दोहराये ।

[ अब तो यादव की खैर नहीं , पण्डित का गुस्सा तो सातवें आसमान पर चढ़ गया ] गुस्से में खड़े हुए और बोले ,यादव की दुम ,गधे ,बेवकूफ, नासमझ ,मंदबुद्धी तू अपने को क्या समझता है ?अपने को पंडित समझ बैठा है और यादव को दो थप्पड़ लगा दिए ।

[यादव के तो कथा का भूत सवार था । यादव को तो यही पता था कि पण्डित जी जो -जो कहेंगे वही करना पड़ेगा चाहे मजबूरी में ही करना पड़े । यादव जी कहाँ कथा सुनने से पीछे हटने वाले थे ]

यादव जी भी पूरे जोश के साथ उठे और वही पूरी बात पण्डित जी की आँखों में आँखे डालकर चिल्लाते हुए कहडाली और अन्त में पूरे जोर से पण्डित के गालों पर हथौड़े जैसा दो हाथ दे डाला ।

पण्डित जी की पूरी खोपड़ी घूम गयी और जब होश आया तो यादव को पटक -पटक क्र बहुत मारा । यादव भी पंडित की पटक -पटक क्र खूब धुनायी की ,अब तो दोनों में पटका की पटकी घमासान युद्ध होने लगा । दोनों जब लड़ते -लड़ते थक गए, शरीर में जैसे जान ही न रह गयी हो तब,

पण्डित जी ने अपनी जान बचते हुए घर की तरफ भागे । यादव ने आवाज लगाई अरे ! पण्डित जी अपना दक्षिणा तो लेते जाइये । अगर ऐसा करेंगे तो नरक में भी हम मुँह दिखाने लायक न रह जाएंगे,दक्षिणा लिए बगैर हम आपको नहीं जाने देंगे ।

पण्डित भागते हुए हरामख़ोर अपनी दक्षिणा अपने पास रख........ ।

"यादव गहरी सांस लेते हुए "अरे डब्बू की अम्मा कथा सुनने में बहुत मेहनत लगती है, हमारा तो पूरा शारीर दर्द हो रहा है ,और इतने शरीफ पण्डित जी की एक बार भी दान -दक्षिणा के लिए नहीं बोले ।

" यदवायिन "कोई बात नहीं जी हमारी मन की इच्छा तो पूरी हो गयी । चलो आज कथा सुन ली ,समझ लो चारों धाम चले गये । लेकिन पण्डित जी तो अपनी दक्षिणा तो ले नहीं गए ।

दक्षिणा पण्डित जी के घर पहुंचनी होती होगी इसलिए न ले गए हो । कितनी मेहनत कथा भी तो सुनाने में लगती है आखिर वो कैसे ले जाते ,शाम को तुम दे आना । ठीक है जी हम दे आएंगे ।

पण्डित ने अपनी पत्त्नी से अपनी सारी आपबीती सुनायी । पंडिताइन तो गुस्से से आग बबूला हो गयी। उन्होंने ठान ली कि मेरे पति की ये हालत कर दी,उन लोगों को छोडूँगी नहीं ।

पण्डिताइन ने मुंगरी [ कपड़ा धुलनें की लकड़ी जैसी ] डंडा तैयार कर यदवायिन का इंतजार कर रही थी ।

सिकहऔले [तब की तरह सीक से बनी हुयी वस्तु ] में अनाज,दान दक्षिणा की चीजें रखकर पण्डित के घर यदवायिन पहुँच गयी । दरवाजे की कुंडी खटखटाते हुये ,पण्डित जी दरवाजा खोलिए आप अपना दक्षिणा नहीं लेकर आए वही देने आयी हूँ !

पण्डिताइन को इसी पल का इंतजार था । उन्होंने दरवाजा खोलते ही मुंगरी से यदवायिन को पीटना शुरू कर दिया और यदवायिन कहाँ पीछे हटने वाली उसने भी पण्डिताइन से मुंगरी छीन कर उतनी ही मारी जितनी मार खायी थी अब तो दोनों में बाल घासीट -घासीट कर,अटका -पटकी कर -कर के गाली गालौज से मारधाड़ होने लगी । [पण्डित जी के उतनी हिम्मत ही नहीं की दोनों को अलग कर सके ] दोनों एक दूसरे से ऐसे लड़ रहीं थी जैसे चन्दन के पेड़ से साँप लपटा हो । अन्त में दोनों की हिम्मत नहीं रह गयी कि और लड़ सकें । पण्डिताइन ने यदवायिन को धक्का देकर भगा दिया ।

घर आकर यादव से बोली :सुनिये जी पता है आपको जीतनी मेहनत कथा सुनने में लगती है उससे ज्यादा मेहनत दक्षिणा देने में लगती है ।

(अम्मा )
Pandit and Yadav's Tale